सत्य नारायण जी की प्रचलित कथा श्री स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में दी गयी है।
भविष्य पुराण में भी इनकी कथा दी गयी है। भविष्य पुराणके प्रतिसर्ग पर्व के द्वितीय खण्ड के अध्याय 24 से अध्याय 29 तक 6 अध्यायों में यह कथा है।
भविष्य में मैं रेवाखण्ड वाली कथा को भी प्रकाशित करूंगा। दोनों ही कथा लगभग समान हैं। दोनों के फल भी समान हैं। परंतु आपको एक बार इस कथा को अवश्य ही सुन लेना चाहिये। बाद में आपकी मर्जी आप जिसे सुनना चाहें सुने।
यहाँ एक विशेष बात आई है कि कथा के प्रतिपाद्य देव जिन्हें श्री सत्यनारायण कहते हैं वे ही सत्यस्वरूप साङ्गाय सपरिवाराय भगवान श्री राम एवं लक्ष्मी पति दोनों ही के रूप में वंद्य हैं। वस्तुतः जो निर्विकार ब्रह्म हैं जिन्हें वेद नेति नेति कह कर पुकारते हैं, वे ही भक्तों के प्रेम के वशीभूत हो करके सगुण रूप धारण कर लेते हैं।
श्रीरामचरितमानसके बालकाण्डमें भूत-भावन-भगवान शंकर पार्वतीजी को स्वयं कहते हैं,
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।।
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना।।
दो. पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ।। 116।।
एवं हरि व राम कि अनन्यता देखनी हो तो श्रीरामचरितमानसके उत्तरकाण्डमें काकभुशुंडीजी गरुणजी से क्या कहते हैं देखिये-
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल, बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।१२२ क।मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन,अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन१२२ख श्लो- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे,हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥१२२ग॥
देखिये ऊपर और नीचे हरि लिखा है एवं बीच में राम। अर्थात दोनों में कोई अंतर नहीं है।