राम जानकी और लखन जब वन को जा रहे थे तो उन्होंने गुरुदेव अर्थात गुरु वशिष्ट के ऊपर पूरी जिम्मेदारी सौंप दी थी।
श्रीरामचरितमानसके अयोध्या कांड दोहा 79 के बाद इन चीजों का वर्णन है। लिखा है,
दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।।79।।
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।।
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे।।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी।।
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई।।
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी।।
दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।80।।
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एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।
गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई।।
राजा दशरथ जी के अक्षम हो जाने के बाद किसको राज्य की जिम्मेदारी सौंपी जाए यह निर्णय करना एक बहुत बड़ा काम था सामान्य रूप से मंत्री सुमंत जी को यह कार्य सौंपा जाना चाहिए था परंतु श्री रामचंद्र जी ने गुरु जी को इस कार्य को सौंपा था क्योंकि वे उनकी योग्यता को जानते थे। वस्तुतः वशिष्ठजी ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे एवं पीढ़ियों से उन्होंने रघुवंश की नैया को किनारे लगाने के प्रमाण प्रस्तुत किए थे जिसे राम जानते थे।