उत्पन्ना एकादशी – मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की एकादशी

भविष्योत्तर पुराण के अनुसार मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष के उत्पन्ना एकादशी की कथा

इसकी कथा नीचे लिखी गयी है. 

कथा को पढने के बाद आप कृपया उसके नीचे दिये गए यू ट्यूब को जरूर देखें क्योंकि उसमें आपको कुछ और भी मिलेगा जो आपके जीवन के लिये अवश्य लाभकारी होगा ऐसा मुझे विश्वास है.  यह लगभग 20 मिनट का है.

उसके नीचे के यू ट्यूब में संस्कृत की मूल कथा है. यह वीडियो 25 मिनट से कुछ ज्यादा की है. यदि आपमें मूल कथा को सुनने की अभिलाषा है तो आप इसे अवश्य सुनें अन्यथा आप चाहें तो न भी देखें|

मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष के ग्यारहवें दिन श्रीबद्रीविशाल के क्षेत्र में लगभग 150 किलोमीटर लम्बी गुफा में, एकादशी ने भगवान विष्णु के शरीर से जन्म लिया था। इस तिथि ने उनको उत्पन्न किया था इसीलिये यह तिथि उतपन्ना एकादशी कहलाई।

इनके महात्म्य को भी सुन लेने मात्र सेबहुत लाभ मिलता है।

इस कथा को सुनने से हमें यह ज्ञान होता है कि हम सभी को वैष्णवों वाली एकादशी का व्रत रहना चाहिए। आपको ज्ञात ही है कि यदि एकादशी दो दिन पड़ती है तो पहले दिन आम जनता रहती है एवं दूसरे दिन वैष्णव लोग।

इस कथा को सुनने के बाद यह भी मालूम पड़ेगा कि एक बार भोजन करके भी व्रत रहा जा सकता है। ऐसा करने से शायद फल में कोई कमी न रहे।

इसका यह अर्थ नहीं है कि जो लोग तप करते आये हैं वे निराहार व्रत को त्याग कर आहार करना प्रारंभ करें।

हमारे देवी-देवताओं की दयालुता है जो वे हमें कष्ट से बचाने के लिए नियमों में छूट देते रहते हैं। परन्तु तपस्या का महत्त्व तो है ही।

तप से तेज बढ़ता है।

आइये कथा को जानें व् सुनें

एक समय यु‍धिष्ठिर ने भगवान से पूछा था ‍कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल प्राप्त होता है। उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए। यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो।

सर्वप्रथम हेमंत ऋ‍तु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे।

स्नान के पश्चात भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना नहीं चाहिए। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।
जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ (श्रीमद् भागवत के ग्यारहवे स्कंध के अनुसार इसी तीर्थ में भगवान श्रीकृष्णजी ने अपने शापित पौत्र यदुवंशियो को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाई थी। ) में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात (व्यतिपात एक योग है; 27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। व्यतिपात उनमें से एक है; परन्तु वाराह पुराण में इस योग का गुणगान भी किया गया है। कहा जाता है की इस योग में प्राणायम, जप, पाठ, मानसिक जप, मंत्रो का उच्चारण इत्यादि करने से जातक के ऊपर ईश्वर की विशेष अनुकम्पा की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से भगवान् सूर्यनारायण प्रसन्न होते है।

 के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।

अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है।

हजार यज्ञों से भी ‍अधिक इसका फल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है।  


युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया। सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए।

भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य उत्पन्न हुआ। वह बड़ा बलवान और भयानक था। उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ।

वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे‍कि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं।

आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। सबको शांति प्रदान करने वाले हैं। आकाश और पाताल भी आप ही हैं। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है।

हे भगवन्! दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से भ्रष्ट कर दिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें।

इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु कहने लगे कि हे इंद्र! ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताअओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय में है तथा उसका स्थान कहाँ है? यह सब मुझसे कहो।

भगवान के ऐसे वचन सुनकर इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस था; उसके महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ। उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है। उसी ने सब देवताअओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया है। उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अधिकार कर लिया है।

सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए। यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा। तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े। भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। बहुत-से दैत्य मारे गए। केवल मुर बचा रहा। वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न‍-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।

10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए। वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए। यह गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए।

मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया।

श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं।

एकादशी देवी ने भगवान् विष्णु से कुछ वरदान मांगे जिसे प्रभु ने स्वीकार भी कर लिया. उनके द्वारा मांगे गए वरदान –

  1. मैं एकादशी सब तीर्थों में प्रधान हो जाऊं.
  2. मैं एकादशी सब विघ्नों को नाश करने वाली हो जाऊं
  3. मैं एकादशी सब प्रकार की सिद्धि देने वाली हो जाऊं
  4. जो लोग आपकी भक्ति करते हुए मेरे दिन में उपवास करेंगे उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो
  5. जो लोग इन तीनों में से किसी भी प्रकार से मेरे व्रत का पालन करें उन्हें आप धन, धर्म, और मोक्ष प्रदान कीजिए –1) उपवास, 2) नक्त, 3) एकभुक्त

मेरा आपसे निवेदन है कि इनके विषय में सही तरीके से जानने के लिये आप मेरे नीचे के यू ट्यूब को जरूर देखें

||सीताराम||

कथा हिंदी में

आइये अब मूल कथा को संस्कृत में सुनें व् पढ़ें

कथा संस्कृत में

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