‘प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा’ का रहस्य
श्रीगणेशाय नमः , श्रीगुरवे नमः, श्रीसीतारामचर्णेभ्यो नमः, नारायण हरिः
हर तरह से सुन्दर होने से इसे सुन्दरकाण्ड कहा गया है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसे श्रीरामचरितमानस रूपी माला का सुमेरु मान कर इसका नाम सुमेरकाण्ड रखा था (सर्वश्रेष्ट काण्ड)। यह वैसे ही महत्वपूर्ण है जैसे भागवतजी में दशम स्कन्ध। सुन्दरकाण्ड की हर बात सुन्दर है। ऐसे में इसमें कुछ गलत लिखा ही नहीं है। फिर ऐसे कैसे हो गया कि उसी कांड में जहाँ,
न तो जगत जननी माता जानकीजी हनुमन्त लाल को बेटा-बेटा कहते थक रही हैं। यथा,
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।(15/6)
आगे देखें,
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।(16/2)
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
न ही प्रभु श्री रामचन्द्र जी उनको बेटा कहते संकोच कर रहे हैं। यथा,
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।(31/5)
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
वहीं – उसी काण्ड में ऐसा कैसे हो सकता है कि यह भी लिखा हो –
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
ऐसे कई लोग हैं जो सुबह हनुमान जी का नाम इसी चौपाई के आधार पर नहीं लेते हैं। आज मैं मानस के इस प्रसंग के शंका का समाधान करने का प्रयास कर रहा हूँ।
शंका – क्या हनुमान जी महाराज का नाम सुबह-सुबह नहीं लेना चाहिये? क्योकि हनुमान जी स्वयं कह रहे है। हनुमान जी महाराज तो ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं, भक्तो में सबसे ऊपर हनुमान जी हैं, उनके जैसा भक्त/ सेवक कौन होगा? फिर यहाँ हनुमानजी अपने आप को ऐसा क्यों कह रहे है ?
समाधान –
प्रथम भाव
विभीषण ने कहा कि मैं तो जन्म से ही अभागा हूँ। मेरा तो यह शरीर भी राक्षसी है और मन में भी प्रभु के पद कमल के प्रति प्रीति नहीं उपजती, देखें सुंदरकाण्ड के छठे दोहे के बाद तीसरे चौपाई को-
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।(6/3)
तब ज्ञानिनामग्रगण्यम श्रीहनुमानजी महाराज ने उन्हें हीन भावना से निकालने के लिए अपने को उनसे भी हीन रूप में प्रस्तुत किया। यह उनका वाक् चातुर्य था। वे बोले “मैं ही कौन सा कुलीन हूँ विभीषण? एक बन्दर के रूप में मैं भी तो सब तरह से हीन ही हूँ। और तो और लोक श्रुति तो यह भी है कि अगर कोई सुबह हमारा नाम (बन्दर का नाम) ले ले तो उसे दिन भर आहार नहीं मिलेगा! सुंदरकाण्ड के छठे दोहे के बाद सातवें एवं आठवें चौपाई हैं –
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
प्रकारांतर से हनुमानजी यह कह गए कि तन मन या योनि से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर प्रभु राम की कृपा हो जाय तो अधम भी पुण्यात्मा सरीखा बन जाता है। जैसे मैं, कागभुशुंडि जी एवं जटायु। मैं एक बन्दर एवं कागभुशुंडि जी एक कौवा। मेरे एवं कागभुशुंडिजी के विषय में भले ही कोई कहे कि वे तो भक्त थे इसलिए कृपा पात्र हुये होंगे, परंतु जटायु क्या थे? उनके विषय में क्या लिखा है देखें –
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी। (अरण्यकाण्ड/32/2)
जटायु एक गीध था; पक्षीयों मे अधम योनि का था; और प्रकृति के अनुसार वो आमिष भोगी था – मांस खाने वाला था। वह मुर्दा तक को खाने वाला था! उस तक ने श्री राम की गोद मे अपना सर रखकर उनका मुख कमल देखते हुए प्राण छोड़े ,जिस लक्ष्य को पाने के लिए योगी सालों साल तप करते रहते हैं। उसने सिर्फ प्राप्त कर्म को करके उसे प्राप्त कर लिया; उसके पूजा पाठ और जप तप करने का कोई प्रमाण अभी तक मुझे तो नहीं मिला है।
अब जिस पर प्रभु की कृपा हो तो उसे याद करने से या उसका नाम लेने से कभी किसी का कुछ भी बिगड़ सकता है क्या! अरे वे तो पंक्तिपावन होते हैं। यदि वे बैठ जाएँ तो पूरी की पूरी पाँत पवित्र हो जाती है। अस्तु उनका नाम तो हर वक्त लिया जा सकता है।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।(अयोध्या 195/2)
द्वितीय भाव
एक भाव यह भी है जिसे पंडित दाऊ दयाल ठाकुर जी महाराज ने प्रस्तुत किया था। वे बोले हनुमानजी ने ‘आहार’ के मिलने या न मिलने की बात ही नहीं किया है; उन्होंने ‘अहारा’ की बात किया है। आहार सामान्य भोजन को कहा जाता है जबकि अहारा मांस को कहा जाता है जो राक्षसी भोजन है।
इसी शब्द का प्रयोग सुंदरकाण्ड में राक्षसी के वेष में आयी सुरसा भी कर रही है,
“आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा, सुनत वचन कह पवनकुमारा “(1/3)
इसी शब्द का प्रयोग पुनः लंका कांड में भी युद्ध के समय आया है,
“जिमि अरुनोपल निकर निहारी । धावहि सठ खग मांस अहारी” (39/9)
ऐसे एक उदाहरण ऐसा भी है जहाँ यह बात ठीक नहीं बैठती है। इसका निर्णय भविष्य के सत्संग पर छोड़ा जा रहा है। बालकांड में मनु शतरूपा के तप के लिए लिखा है-
“करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा”।।(143/1)]
इन बातों के होने से दोनों के दिल मिल गए एवं दोनों के नेत्रों से अश्रु टपकने लगे। तुलसीदासजी तात्कालीन परिस्थिति का चित्रण करते हुये कह पड़े –
दो– अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।
हनुमानजी का मिशन पूरा हो रहा था। दुश्मन के भाई से मैत्री प्रगाढ़ हो चली थी। हनुमानजी ने अपने को छोटा दिखा कर बड़ा काम करा लिया था। सीता का पता पा लिया था। रावण के राजदार को अपना बना लिया था। आखिर कार वही तो रावण के मृत्यु का कारण बना। हनुमानजी के इस एक वचन ने रावण के जीत का पासा पलट दिया था। ऐसे महापुरुष का तो उठते ही याद करना पूरे दिन को सुंदर बना सकने की क्षमता रखता है। हमें सिर्फ अपने करम का ध्यान रखना चाहिए। उसे शुद्ध रखना चाहिए।
‘श्री राम जय राम जय जय राम, संकट मोचन कृपा निधान’ एवं ‘श्री राम जय राम जय जय राम, जय जय विघ्न हरण हनुमान’ महामंत्र कहे गए हैं। यही मंत्र मेरे पिताजी के भी सम्बल बने रहे। इस प्रसंग का फल मैं अपने पितरों को समर्पित करता हूँ। ॥ सीताराम ॥